देहरादून।
हाईकोर्ट की ओर से राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के संबंध में प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया है। इसको लेकर पूर्व सीएम हरीश रावत ने प्रदेश सरकार पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार की लापरवाही राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों पर भारी पड़ी रही है।
गौरतलब है कि गुरुवार को हाईकोर्ट ने राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के संबंध में प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया है। जिसके बाद प्रदेश के 730 राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी पर संकट खड़ा हो गया है।
इसको लेकर पूर्व सीएम हरीश रावत ने कहा कि प्रदेश सरकार की हीलाहवाली और ठोस पैरवी न होने के कारण ये सब हुआ है। सरकार को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कहा कि राज्य का हाईकोर्ट में इतना बड़ा तंत्र है, क्या उनको यह मालूम नहीं था कि यदि किसी याचिका में कोई सुधार करना है या अतिरिक्त दस्तावेज लगाने हैं, तो उस पर समयावधि का कानून लागू होता है।
माननीय हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट ऐसे स्थान तो हैं नहीं कि जहां आप जब चाहें मुंह उठाए संशोधन की अर्जी लगा दें। क्षैतिजीय आरक्षण को लेकर उस अपराधी को भी खोजा जाना आवश्यक है, जिस अपराधी के दबाव में 2016 में तत्कालीन राज्यपाल महोदय ने विधानसभा द्वारा क्षैतिजीय आरक्षण को लेकर सर्वसम्मति से पारित किए गए विधेयक को हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और उस विधेयक को वापस भी नहीं लौटाया ताकि विधानसभा फिर से उसको पारित न कर सके। आखिर किसी का तो दबाव था महामहिम राज्यपाल के ऊपर! क्या तत्कालीन मुख्यमंत्री ऐसी दबाव की स्थिति में थे या केंद्र सरकार ऐसे दबाव की स्थिति में थी कि उस पारित बिल पर हस्ताक्षर नहीं किये और मामले को दबाकर के बैठे रहे! यह अकेला प्रसंग नहीं है जिसमें गवर्नर ने राज्य सरकार द्वारा भेजी गई फाइल पर हस्ताक्षर न किए हों और फाइल को अपने पास रोककर के बैठ गए हों।
ऐसा ही मामला लोकायुक्त और लोकायुक्तों के चयन को लेकर के भी है, वह फाइल भी सर्वसम्मति से जिसमें नेता प्रतिपक्ष के हस्ताक्षर भी हैं, लोकायुक्तों का चयन कर माननीय राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेजी गई थी। कई क्वेरीज मौखिक और स्वयं मैं महामहिम राज्यपाल के पास गया था, लेकिन वह फाइल राज्यपाल महोदय के भवन से बाहर नहीं आई-नहीं आई और राज्य विधिवत चयनित लोकायुक्त से वंचित रह गया। ये दो ऐसी बड़ी घटनाएं हैं, जिसका दंड उत्तराखंड को भोगना पड़ रहा है।
अब क्षैतिजीय आरक्षण का एक ही समाधान है विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाए और नए सिरे से कानून पारित कर समाधान ढूंढा जाए। मुझे यह नहीं लगता है कि वर्तमान स्थितियों में कोई और राहत हमको माननीय उच्च न्यायालय या माननीय उच्चतम न्यायालय से मिल पाएगी।